Shiv Purana: शिव पुराण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, माता पार्वती के कहने पर श्री विष्णु ने जलंधर की पत्नी को छलने का निश्चय किया। इसके बाद जलंधर के नगर में जाकर विष्णु जी उसके पतिव्रत धर्म को नष्ट करने का उपाय खोजने लगे। सबसे पहले उन्होंने अपनी माया का सहारा लेकर वृंदा को रात्रि ने कुछ दुःस्वप्न दिखाए। उसने सपने में देखा कि उसका पति जलंधर, भैंसे पर आरूढ़ होकर नग्न अवस्था में शरीर पर तेल का लेप किए दक्षिण दिशा में जा रहा है। इसके बाद वो सुबह जागकर अपने सपने के बारे में सोच ही रही थी कि उसने सूर्य को भी छिद्र युक्त देखा।
इन घटनाओं को देखकर वो भय से व्याकुल हो गई और अपनी दो सखियों के साथ बीच नगर में आ गई लेकिन उसे फिर भी शांति नहीं मिली। वह एक वन में दूसरे वन में गई लेकिन कहीं भी उसके मन को स्थिरता प्राप्त नहीं होती थी। उसी समय उसने देखा कि दो राक्षस उसके ऊपर प्रहार करने वाले है। उन्हें देखकर जैसे ही वह भागने लगी तो उसने देखा कि एक तपस्वी अपने शिष्य के साथ बैठे है। वृंदा ने उस तपस्वी की शरण ली और उस तपस्वी ने उन दोनों राक्षसों को भगा दिया। तपस्वी को सिद्ध जानकर वृंदा ने उनसे विनती करते हुए कहा कि मेरे पति जलंधर युद्ध में गए है।
क्या मुझे आप उनकी कुशलता का समाचार दे सकते है? उसी समय उस मुनि ने आकाश की ओर देखा और शीघ्र ही दो वानर आ गए। मुनि ने अपनी भौंह से उन्हें एक इशारा किया और वो तुरंत आकाश की ओर चले गए। कुछ ही पल के बाद वो जलंधर के मस्तक, धड़ और हाथों को लेकर प्रकट हो गए। यह देखकर वृंदा मूर्छित होकर भूमि पर गिर गई। वृंदा जब होश में आई तो उसने उस मुनि से कहा कि आप मेरे पति को जीवित करके मुझ पर कृपा कर दीजिए। मुनि बोले कि रूद्र के द्वारा माया गया जीवित नहीं हो सकता लेकिन फिर भी मैं कृपा करके इसे जीवित कर देता हूं। ऐसा कहकर उस मुनि ने जलंधर को जीवित कर दिया। उसने वृंदा का आलिंगन किया जिससे उसे सुख प्राप्त हुआ। काम पीड़ित होकर दोनों ने उसी वन में बहुत दिनों तक विहार किया।
एक बार सहवास के अंत में उसको विष्णु रूप में जानकर वृंदा क्रोध से भर उठी और विष्णु को श्राप दे दिया। वृंदा ने कहा कि तुम्हे अपनी माया से जिन दो पुरुषों को मुझे दिखाया था वो ही राक्षस बनकर तुम्हारी पत्नी का हरण करेंगे। जो तुम्हारा शिष्य बना था वो शेषनाग भी तुम्हारे साथ वन वन भटकेगा। तुम अपनी पत्नी के वियोग में भटकोगे और वानर ही तुम्हारी मदद करेंगे। ऐसा कहकर वृंदा अग्नि में प्रवेश कर गई और उसका तेज शिव प्रिया पार्वती में समा गया। इस प्रकार कालनेमि की श्रेष्ठ पुत्री वृंदा ने पतिव्रत धर्म के प्रभाव से परा मुक्ति को प्राप्त किया। उसी समय श्री हरि विष्णु ने वृंदा का स्मरण कर उसकी चिता की भस्म को धारण कर लिया।