Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम ने लक्ष्मण को वापिस अयोध्या जाने के लिए कहा लेकिन लक्ष्मण जी ने श्री राम जी से साफ़ मना कर दिया और इसके बाद श्री राम ने कभी अपने छोटे भाई से वापिस जाने की बात नहीं कही। इसके बाद, जहाँ भागीरथी गङ्गा से यमुना मिलती हैं, उस स्थान पर जाने के लिये वे महान् वन के भीतर से होकर यात्रा करने लगे। वे तीनों यशस्वी यात्री मार्ग में जहाँ-तहाँ जो पहले कभी देखने में नहीं आये थे, ऐसे अनेक प्रकार के भूभाग तथा मनोहर प्रदेश देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। सुखपूर्वक आराम से उठते-बैठते यात्रा करते हुए उन तीनों ने फूलों से सुशोभित भाँति-भाँति के वृक्षों का दर्शन किया। गङ्गा-यमुना के सङ्गम के पास पहुंचकर वो भरद्वाज मुनि के आश्रम के निकट आ गए। बातचीत करते हुए वे दोनों धनुर्धर वीर श्रीराम और लक्ष्मण सूर्यास्त होते-होते गङ्गा-यमुना के सङ्गम के समीप मुनिवर भरद्वाज के आश्रम पर जा पहुँचे।
श्रीरामचन्द्रजी आश्रम की सीमा में पहुँचकर अपने धनुर्धर वेश के द्वारा वहाँ के पशु-पक्षियों को डराते हुएदो ही घड़ी में तै करने योग्य मार्ग से चलकर भरद्वाज मुनि के समीप जा पहुँचे। आश्रम में पहुँचकर महर्षि के दर्शन की इच्छा वाले सीता सहित वे दोनों वीर कुछ दूर पर ही खड़े हो गये। र्णशाला में प्रवेश करके उन्होंने तपस्या के प्रभाव से तीनों कालों की सारी बातें देखने की दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेने वाले एकाग्रचित्त तथा तीक्ष्ण व्रतधारी महात्मा भरद्वाज ऋषिका दर्शन किया, जो अग्निहोत्र करके शिष्यों से घिरे हुए आसन पर विराजमान थे। महर्षि को देखते ही लक्ष्मण और सीतासहित महाभाग श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनके चरणों में प्रणाम किया। तत्पश्चात् लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीरघुनाथजी ने उन्हें सबका परिचय दिया। परम बुद्धिमान् राजकुमार श्रीराम की सारी बातों को सुनकर भरद्वाज मुनि ने उनके लिये आतिथ्यसत्कार के रूप में एक गौ तथा अर्घ्य-जल समर्पित किये।
उन तपस्वी महात्माने उन सबको नाना प्रकार के अन्न, रस और जंगली फल-मूल प्रदान किये। साथ ही उनके ठहरने के लिये स्थान की भी व्यवस्था की। महर्षि के चारों ओर मृग, पक्षी और ऋषि-मुनि बैठे थे और उनके बीच में वे विराजमान थे। उन्होंने अपने आश्रम पर अतिथि रूप में पधारे हुए श्रीराम का स्वागतपूर्वक सत्कार किया। उस सत्कार को ग्रहण करके श्री रामचन्द्र जी जब आसन पर विराजमान हुए, तब भरद्वाज जी ने उनसे कहा, मैं इस आश्रम पर दीर्घकाल से तुम्हारे शुभागमन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। महानदियों के संगम के पास का यह स्थान बड़ा ही पवित्र और एकान्त है। यहाँ की प्राकृतिक छटा भी मनोरम है, अतः तुम यहीं सुखपूर्वक निवास करो। भरद्वाज मुनि के ऐसा कहने पर समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले रघुकुलनन्दन श्रीराम ने उन्हें उत्तर दिया।
श्री राम बोले, मेरे नगर और जनपद के लोग यहाँ से बहुत निकट पड़ते हैं, अतः मैं समझता हूँ कि यहाँ मुझसे मिलना सुगम समझकर लोग इस आश्रम पर मुझे और सीता को देखने के लिये प्रायः आते-जाते रहेंगे; इस कारण यहाँ निवास करना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। किसी एकान्त प्रदेश में आश्रम के योग्य उत्तम स्थान देखिये। श्री राम के यह वचन सुनकर मुनि ने उनसे कहा, यहाँ से दस कोस की दूरी पर एक सुन्दर और महर्षियों द्वारा सेवित परम पवित्र पर्वत है, जिस पर तुम्हें निवास करना होगा। वहाँ वानर और रीछ भी निवास करते हैं। वह पर्वत चित्रकूट नाम से विख्यात है और गन्धमादन के समान मनोहर है। वहाँ बहुत-से ऋषि, जिनके सिर के बाल वृद्धावस्था के कारण खोपड़ी की भाँति सफेद हो गये थे, तपस्या द्वारा सैकड़ों वर्षों तक क्रीड़ा करके स्वर्गलोक को चले गये हैं।
ऐसा कहकर भरद्वाजजी ने पत्नी और भ्रातासहित प्रिय अतिथि श्रीराम का हर्ष बढ़ाते हुए सब प्रकार की मनोवाञ्छित वस्तुओं द्वारा उन सबका आतिथ्य सत्कार किया। प्रयाग में श्रीरामचन्द्रजी महर्षि के पास बैठकर विचित्र बातें करते रहे, इतने में ही पुण्यमयी रात्रि का आगमन हुआ और भरद्वाज मुनि के उस मनोहर आश्रम में श्रीराम ने लक्ष्मण और सीता के साथ सुखपूर्वक वह रात्रि व्यतीत की। तदनन्तर जब रात बीती और प्रातःकाल हुआ, तब पुरुषसिंह श्रीराम प्रज्वलित तेज वाले भरद्वाज मुनि के पास गये और आगे जाने की आज्ञा मांगी और भरद्वाज मुनि ने उन्हें चित्रकूट पर्वत पर जाने की बात कही।