Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि माता सीता ने गंगा माँ की पूजा की और वनवास खत्म होने के बाद उनकी पूजा करने का वचन दिया। वहीं प्रभु श्री राम गंगा नदी को पार करके वत्स प्रदेश में पहुँच गए। श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कहा, आज महाराज निश्चय ही बड़े दुःख से सो रहे होंगे, परंतु कैकेयी सफल मनोरथ होने के कारण बहुत संतुष्ट होगी। कहीं ऐसा न हो कि रानी कैकेयी भरत को आया देख राज्य के लिये महाराज को प्राणों से भी वियुक्त कर दे। अपने ऊपर आये हुए इस संकट को और राजा की मतिभ्रान्ति को देखकर मुझे ऐसा मालूम होता है कि अर्थ और धर्म की अपेक्षा काम का ही गौरव अधिक है। पिताजी ने जिस तरह मुझे त्याग दिया है, उस प्रकार अत्यन्त अज्ञ होने पर भी कौन ऐसा पुरुष होगा, जो एक स्त्री के लिये अपने आज्ञाकारी पुत्र का परित्याग कर दे?
हम लोगों के कारण तुम्हारी माता सुमित्रा देवी को बड़े दुःख के साथ वहाँ रहना पड़ेगा, अतः लक्ष्मण ! तुम यहीं से कल प्रातःकाल अयोध्या को लौट जाओ। मैं अकेला ही सीता के साथ दण्डक वन को जाऊँगा। तुम वहाँ मेरी असहाय माता कौसल्या के सहायक हो जाओगे। निश्चय ही पूर्वजन्म में मेरी माता ने कुछ स्त्रियों का उनके पुत्रों से वियोग कराया होगा, उसी पाप का यह पुत्र-बिछोहरूप फल आज उन्हें प्राप्त हुआ है। मुझसे बिछुड़ जाने के कारण माता कौसल्या वास्तव में मन्दभागिनी हो गयी है और शोक के समुद्र में पड़कर अत्यन्त दुःख से आतुर हो उसी में शयन करती है।
यह तथा और भी बहुत-सी बातें कहकर श्रीराम ने उस निर्जन वन में करुणाजनक विलाप किया। तत्पश्चात् वे उस रात में चुपचाप बैठ गये। उस समय उनके मुखपर आँसुओं की धारा बह रही थी और दीनता छा रही थी। विलाप से निवृत्त होने पर श्रीराम ज्वालारहित अग्नि और वेगशून्य समुद्र के समान शान्त प्रतीत होते थे। उस समय लक्ष्मण ने उन्हें आश्वासन दिया। उन्होंने बड़े भाई से कहा, आप जो इस तरह संतप्त हो रहे हैं, यह आपके लिये कदापि उचित नहीं है। आप ऐसा करके सीता को और मुझको भी खेद में डाल रहे हैं। आपके बिना सीता और मैं दोनों दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकते। ठीक उसी तरह, जैसे जल से निकाले हुए मत्स्य नहीं जीते हैं।
आपके बिना आज मैं न तो पिताजी को, न भाई शत्रुघ्न को, न माता सुमित्रा को और न स्वर्गलोक को ही देखना चाहता। तदनन्तर वहाँ बैठे हुए धर्मवत्सल सीता और श्रीराम ने थोड़ी ही दूरपर वटवृक्ष के नीचे लक्ष्मण द्वारा सुन्दर ढंग से निर्मित हुई शय्या देखकर उसीका आश्रय लिया। शत्रुओं को संताप देने वाले रघुनाथजी ने इस प्रकार वनवास के प्रति आदरपूर्वक कहे हुए लक्ष्मण के अत्यन्त उत्तम वचनों को सुनकर स्वयं भी दीर्घकाल के लिये वनवास रूप धर्म को स्वीकार करके सम्पूर्ण वर्षों तक लक्ष्मण को अपने साथ वन में रहने की अनुमति दे दी। तदनन्तर उस महान् निर्जन वन में रघुवंश की वृद्धि करने वाले वे दोनों महाबली वीर पर्वतशिखर पर विचरने वाले दो सिंहों के समान कभी भय और उद्वेग को नहीं प्राप्त हुए।