Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, प्रभु श्री राम ने अयोध्या के मंत्री सुमन्त्र को वापिस अपनी नगरी जाने का आदेश दिया और अपने भाई और पत्नी के साथ गंगा नदी पार करने के लिए आ गए। महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी भी उस नाव पर आरूढ़ होने के पश्चात् अपने हित के उद्देश्य से ब्राह्मण और क्षत्रिय के जपने योग्य ‘दैवी नाव’ इत्यादि वैदिक मन्त्र का जप करने लगे।
फिर शास्त्रविधि के अनुसार आचमन करके सीता के साथ उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर गङ्गाजी को प्रणाम किया महारथी लक्ष्मण ने भी उन्हें मस्तक झुकाया। इसके बाद श्रीराम ने सुमन्त्र को तथा सेनासहित गुह को भी जाने की आज्ञा दे नाव पर भलीभाँति बैठकर मल्लाहों को उसे चलाने का आदेश दिया। तदनन्तर मल्लाहों ने नाव चलायी। कर्णधार सावधान होकर उसका संचालन करता था। वेग से सुन्दर डाँड़ चलाने के कारण वह नाव बड़ी तेजी से पानीपर बढ़ने लगी।
भागीरथी की बीच धारा में पहुँचकर सती साध्वी विदेहनन्दिनी सीता ने हाथ जोड़कर गङ्गाजी से यह प्रार्थना की, देवि गङ्गे ! ये परम बुद्धिमान् महाराज दशरथ के पुत्र हैं और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये वन में जा रहे हैं। ये आपसे सुरक्षित होकर पिता की इस आज्ञा का पालन कर सकें, ऐसी कृपा कीजिये। वन में पूरे चौदह वर्षों तक निवास करके ये मेरे तथा अपने भाई के साथ पुनः अयोध्यापुरी को लौटेंगे।
देवि गङ्गे ! उस समय वन से पुनः कुशलपूर्वक लौटने पर सम्पूर्ण मनोरथों से सम्पन्न हुई मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ आपकी पूजा करूँगी। इतना ही नहीं, मैं आपका प्रिय करने की इच्छा से ब्राह्मणों को एक लाख गौएँ, बहुत-से वस्त्र तथा उत्तमोत्तम अन्न प्रदान करूँगी। पुनः अयोध्यापुरी में लौटने पर मैं सहस्रों देवदुर्लभ पदार्थों से तथा राजकीय भाग से रहित पृथ्वी, वस्त्र और अन्न के द्वारा भी आपकी पूजा करूँगी। आप मुझ पर प्रसन्न हों।
पति के अनुकूल रहने वाली सती-साध्वी सीता इस प्रकार गङ्गाजी से प्रार्थना करती हुई शीघ्र ही दक्षिण तट पर जा पहुँचीं। किनारे पहुँचकर शत्रुओं को संताप देने वाले नरश्रेष्ठ श्रीराम ने नाव छोड़ दी और भाई लक्ष्मण तथा विदेहनन्दिनी सीता के साथ आगे को प्रस्थान किया। तदनन्तर महाबाहु श्रीराम सुमित्रानन्दन लक्ष्मण से बोले, सुमित्राकुमार ! अब तुम सजन या निर्जन वन में सीता की रक्षा के लिये सावधान हो जाओ। हम जैसे लोगों को निर्जन वन में नारी की रक्षा अवश्य करनी चाहिये। अतः तुम आगे-आगे चलो, सीता तुम्हारे पीछे-पीछे चलें और मैं सीता की तथा तुम्हारी रक्षा करता हुआ सबसे पीछे चलूँगा।
हम लोगों को एक-दूसरे की रक्षा करनी चाहिये। श्रीरामचन्द्रजी का यह वचन सुनकर लक्ष्मण आगे बढ़े। उनके पीछे सीता चलने लगीं तथा सीता के पीछे रघुकुलनन्दन श्रीराम थे। श्रीरामचन्द्रजी शीघ्र गङ्गाजी के उस पार पहुँचकर जबतक दिखायी दिये तब तक सुमन्त्र निरन्तर उन्हीं की ओर दृष्टि लगाये देखते रहे। जब वन के मार्ग में बहुत दूर निकल जाने के कारण वे दृष्टि से ओझल हो गये, तब तपस्वी सुमन्त्र के हृदय में बड़ी व्यथा हुई। वे नेत्रों से आँसू बहाने लगे।
लोकपालों के समान प्रभावशाली वरदायक महात्मा श्रीराम महानदी गङ्गा को पार करके क्रमशः समृद्धिशाली वत्सदेश (प्रयाग)-में जा पहुँचे, जो सुन्दर धन-धान्य से सम्पन्न था। वहाँ के लोग बड़े हृष्टपुष्ट थे। वहाँ उन दोनों भाइयों ने मृगया-विनोद के लिये वराह, ऋष्य, पृषत् और महारुरु—इन चार महामृगों पर बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात् जब उन्हें भूख लगी, तब पवित्र कन्द-मूल आदि लेकर सायंकाल के समय ठहरने के लिये (वे सीताजी के साथ) एक वृक्ष के नीचे चले गये।
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