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Valmiki Ramayana Part 122: तमसा नदी के तट पर राम ने किया विश्राम, तड़के उठकर वन को प्रस्थान

jeevanjali Published by: निधि Updated Sat, 09 Mar 2024 04:02 PM IST
सार

Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम के वन जाने के बाद राजा दसरथ ने क्रोध में आकर रानी कैकेयी को हमेशा के लिए त्याग दिया।

वाल्मिकी रामायण
वाल्मिकी रामायण- फोटो : jeevanjali

विस्तार

Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम के वन जाने के बाद राजा दसरथ ने क्रोध में आकर रानी कैकेयी को हमेशा के लिए त्याग दिया। दूसरी ओर श्री राम तमसा नदी के तट पर पहुंचे। वहाँ पहुँचने पर सुमन्त्र ने भी थके हुए घोड़ों को शीघ्र ही रथ से खोलकर उन सबको टहलाया, फिर पानी पिलाया और नहलाया, तत्पश्चात् तमसा के निकट ही चरने के लिये छोड़ दिया। सुमन्त्र ने सूर्यास्त हो जाने पर घोड़ों को लाकर बाँध दिया और उनके आगे बहुत-सा चारा डालकर वे श्रीराम के पास आ गये। तमसा के तट पर वृक्ष के पत्तों से बनी हुई शय्या देखकर श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण और सीता के साथ उसपर बैठे। तमसा का वह तट गौओं के समुदाय से भरा हुआ था। श्रीरामचन्द्रजी ने प्रजाजनों के साथ वहीं रात्रि में निवास किया। वे प्रजाजनों से कुछ दूर पर सोये थे।

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महातेजस्वी श्रीराम तड़के ही उठे और प्रजाजनों को सोते देख पवित्र लक्षणों वाले भाई लक्ष्मण से इस प्रकार बोले, इन पुरवासियों की ओर देखो, ये इस समय वृक्षों की जड़ से सटकर सो रहे हैं। इन्हें केवल हमारी चाह है। ये अपने घरों की ओर से भी पूर्ण निरपेक्ष हो गये हैं। जब तक ये सो रहे हैं तभी तक हम लोग रथ पर सवार होकर शीघ्रतापूर्वक यहाँ से चल दें। फिर हमें इस मार्ग पर और किसी के आने का भय नहीं रहेगा। यह सुनकर लक्ष्मण ने साक्षात् धर्म के समान विराजमान भगवान् श्रीराम से कहा, मुझे आपकी राय पसंद है। शीघ्र ही रथ पर सवार होइये। सुमन्त्र ने उन उत्तम घोड़ों को तुरंत ही रथ में जोत दिया और श्रीराम के पास हाथ जोड़कर निवेदन किया, आपका यह रथ जुता हुआ तैयार है अब सीता और लक्ष्मण के साथ शीघ्र इस पर सवार होइये।

श्रीरामचन्द्रजी सबके साथ रथ पर बैठकर तीव्रगति से बहने वाली भँवरों से भरी हुई तमसा नदी के उस पार गये। नदी को पार करके महाबाहु श्रीमान् राम ऐसे महान् मार्ग पर जा पहुँचे जो कल्याणप्रद, कण्टकरहित तथा सर्वत्र भय देखने वालों के लिये भी भय से रहित था। इधर रात बीतने पर जब सबेरा हुआ, तब अयोध्या वासी मनुष्य श्रीरघुनाथ जी को न देखकर अचेत हो गये। वे शोकजनित आँसू बहाते हुए अत्यन्त खिन्न हो गये तथा इधर-उधर उनकी खोज करने लगे। परंतु उन दुःखी पुरवासियों को श्रीराम किधर गये, इस बात का पता देने वाला कोई चिह्न तक नहीं दिखायी दिया। बुद्धिमान् श्रीराम से विलग होकर वे अत्यन्त दीन हो गये। उनके मुख पर विषादजनित वेदना स्पष्ट दिखायी देती थी। वे मनीषी पुरवासी करुणा भरे वचन बोलते हुए विलाप करने लगे।

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उनका चित्त क्लान्त हो रहा था। वे सब जिस मार्ग से गये थे, उसी से लौटकर अयोध्यापुरी में जा पहुँचे, जहाँ के सभी सत्पुरुष श्रीराम के लिये व्यथित थे। उस नगरी को देखकर उनका हृदय दुःख से व्याकुल हो उठा। वे अपने शोकपीड़ित नेत्रों द्वारा आँसुओं की वर्षा करने लगे। उन्होंने देखा, सारा नगर चन्द्रहीन आकाश और जलहीन समुद्र के समान आनन्दशून्य हो गया है। पुरी की यह दुरवस्था देख वे अचेत-से हो गये। उनके हृदय का सारा उल्लास नष्ट हो चुका था। वे दुःख से पीड़ित हो उन महान् वैभवसम्पन्न गृहों में बड़े क्लेश के साथ प्रविष्ट हो सबको देखते हुए भी अपने और पराये की पहचान न कर सके।

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