Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम ने वन की ओर जैसे ही प्रस्थान किया पूरी नगरी में कोलाहल मच गया। श्री राम ने देखा कि माँ कौसल्या उनके रथ के पीछे 2 भाग रही है। उन्होंने सुमन्त्र से रथ को गति प्रदान करने के लिए कहा। इस प्रकार सारी अयोध्यापुरी श्रीराम से रहित होकर भय और शोक से प्रज्वलित-सी होकर उसी प्रकार घोर हलचल में पड़ गयी, जैसे देवराज इन्द्र से रहित हुई मेरु-पर्वतसहित यह पृथ्वी डगमगाने लगती है। हाथी, घोड़े और सैनिकों सहित उस नगरी में भयंकर आर्तनाद होने लगा। वन की ओर जाते हुए श्रीराम के रथ की धूल जबतक दिखायी देती रही, तब तक इक्ष्वाकुवंश के स्वामी राजा दशरथ ने उधर से अपनी आँखें नहीं हटायीं। जब राजा को श्रीराम के रथ की धूल भी नहीं दिखायी देने लगी, तब वे अत्यन्त आर्त और विषादग्रस्त हो पृथ्वी पर गिर पड़े।
उस समय उन्हें सहारा देने के लिये उनकी धर्मपत्नी कौसल्या देवी दाहिनी बाँह के पास आयीं और सुन्दरी कैकेयी उनके वामभाग में जा पहुँचीं। कैकेयी को देखते ही नय, विनय और धर्म से सम्पन्न राजा दशरथ की समस्त इन्द्रियाँ व्यथित हो उठीं। उन्होंने कहा, कैकेयि ! तू मेरे अङ्गों का स्पर्श न कर मैं तुझे देखना नहीं चाहता। तू न तो मेरी भार्या है और न बान्धवी। तूने केवल धन में आसक्त होकर धर्मका त्याग किया है, इसलिये मैं तेरा परित्याग करता हूँ। मैंने जो तेरा पाणिग्रहण किया है और तुझे साथ लेकर अग्नि की परिक्रमा की है, तेरे साथ का वह सारा सम्बन्ध इस लोक और परलोक के लिये भी त्याग देता हूँ। तदनन्तर शोक से कातर हुई कौसल्या देवी उस समय धरती पर लोटने के कारण धूल से व्याप्त हुए महाराज को उठाकर उनके साथ राजभवन की ओर लौटीं।
जैसे कोई जान-बूझकर स्वेच्छापूर्वक ब्राह्मण की हत्या कर डाले अथवा हाथ से प्रज्वलित अग्नि का स्पर्श कर ले और ऐसा करके संतप्त होता रहे, उसी प्रकार धर्मात्मा राजा दशरथ अपने ही दिये हुए वरदान के कारण वन में गये हुए श्रीराम का चिन्तन करके अनुतप्त हो रहे थे। राजा दशरथ बारंबार पीछे लौटकर रथ के मार्गो पर देखने का कष्ट उठाते थे। उस समय उनका रूप राहुग्रस्त सूर्य की भाँति अधिक शोभा नहीं पाता था। इस प्रकार विलाप करते हुए राजा दशरथ ने मरघट से नहाकर आये हुए पुरुष की भाँति मनुष्यों की भारी भीड़ से घिरकर अपने शोकपूर्ण उत्तम भवन में प्रवेश किया।
उधर सत्यपराक्रमी महात्मा श्रीराम जब वन की ओर जाने लगे, उस समय उनके प्रति अनुराग रखने वाले बहुत-से अयोध्यावासी मनुष्य वन में निवास करने के लिये उनके पीछे-पीछे चल दिये। उन प्रजाजनों ने श्रीराम से घर लौट चलने के लिये बहुत प्रार्थना की; किंतु वे पिता के सत्य की रक्षा करने के लिये वन की ओर ही बढ़ते गये। वे प्रजाजनों को इस प्रकार स्नेहभरी दृष्टि से देख रहे थे मानो नेत्रों से उन्हें पी रहे हों। उस समय श्रीराम ने अपनी संतान के समान प्रिय उन प्रजाजनों से स्नेहपूर्वक कहा, मेरे वन में चले जाने पर महाराज दशरथ जिस प्रकार भी शोक से संतप्त न होने पायें, इस बात के लिये आप लोग सदा चेष्टा रखें। मेरा प्रिय करने की इच्छा से आपको मेरी इस प्रार्थना पर अवश्य ध्यान देना चाहिये। दशरथनन्दन श्रीराम ने ज्यों-ज्यों धर्म का आश्रय लेने के लिये ही दृढ़ता दिखायी, त्यों-ही-त्यों प्रजाजनों के मन में उन्हीं को अपना स्वामी बनाने की इच्छा प्रबल होती गयी।