Valmiki Ramayana; वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम को वन में जाता हुआ देखकर राजा और उनकी रानियां विलाप करने लगी। तदनन्तर राम, लक्ष्मण और सीता ने हाथ जोड़कर दीनभाव से राजा दशरथ के चरणों का स्पर्श करके उनकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की। उनसे विदा लेकर सीतासहित धर्मज्ञ रघुनाथजी ने माता का कष्ट देखकर शोक से व्याकुल हो उनके चरणों में प्रणाम किया। श्रीराम के बाद लक्ष्मण ने भी पहले माता कौसल्या को प्रणाम किया, फिर अपनी माता सुमित्रा को भी प्रणाम किया। तब सुन्दरी सीता अपने अङ्गों में उत्तम अलंकार धारण करके प्रसन्न चित्त से उस सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हुईं। पति के साथ जाने वाली सीता के लिये उनके श्वशुर ने वनवास की वर्षसंख्या गिनकर उसके अनुसार ही वस्त्र और आभूषण दिये थे।
इसी प्रकार महाराज ने दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण के लिये जो बहुत-से अस्त्र-शस्त्र और कवच प्रदान किये थे, उन्हें रथ के पिछले भाग में रखकर उन्होंने चमड़े से मढ़ी हुई पिटारी और खन्ती या कुदारी भी उसी पर रख दी। इसके बाद दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण उस अग्नि के समान दीप्तिमान् सुवर्णभूषित रथ पर शीघ्र ही आरूढ़ हो गये। जिनमें सीता की संख्या तीसरी थी, उन श्रीराम आदि को रथ पर आरूढ़ हुआ देख सारथि सुमन्त्र ने रथ को आगे बढ़ाया। उसमें जुते हुए वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों को हाँका। जब श्रीरामचन्द्र जी सुदीर्घकाल के लिये महान् वन की ओर जाने लगे, उस समय समस्त पुरवासियों, सैनिकों तथा दर्शक रूप में आये हुए बाहरी लोगों को भी मूर्छा आ गयी।
उस समय सारी अयोध्या में महान् कोलाहल मच गया। सब लोग व्याकुल होकर घबरा उठे। मतवाले हाथी श्रीराम के वियोग से कुपित हो उठे और इधर उधर भागते हुए घोड़ों के हिनहिनाने एवं उनके आभूषणों के खनखनाने की आवाज सब ओर गूंजने लगी। अयोध्यापुरी के आबाल वृद्ध सब लोग अत्यन्त पीड़ित होकर श्रीराम के ही पीछे दौड़े, मानो धूप से पीडित हुए प्राणी पानी की ओर भागे जाते हों। उनमें से कुछ लोग रथ के पीछे और अगल-बगल में लटक गये। सभी श्रीराम के लिये उत्कण्ठित थे और सबके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। उस समय श्रीराम के पिता ककुत्स्थवंशी श्रीमान् राजा दशरथ उसी तरह खिन्न जान पड़ते थे, जैसे पर्व के समय राहु से ग्रस्त होने पर पूर्ण चन्द्रमा श्रीहीन प्रतीत होते हैं।
एक ओर श्रीरामचन्द्रजी सारथि से रथ हाँकने के लिये कहते थे और दूसरी ओर सारा जनसमुदाय उन्हें ठहर जाने के लिये कहता था। इस प्रकार दुविधा में पड़कर सारथि सुमन्त्र उस मार्गपर दोनों में से कुछ न कर सके न तो रथ को आगे बढ़ा सके और न सर्वथा रोक ही सके। श्रीरामचन्द्रजी के प्रस्थान करते समय सारा नगर अत्यन्त पीड़ित हो गया। सब रोने और आँसू बहाने लगे तथा सभी हाहाकार करते-करते अचेत-से हो गये। हा राम ! हा राम ! हा सीते ! हा लक्ष्मण !’ की रट लगाती और रोती हुई कौसल्या उस रथ के पीछे दौड़ रही थीं। वे श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के लिये नेत्रों से आँसू बहा रही थीं एवं इधर-उधर नाचती–चक्कर लगाती-सी डोल रही थीं।