Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि प्रभु श्री राम ने वाल्मीकि जी से भेंट की और लक्ष्मण जी ने एक पर्णकुटी तैयार की और चित्रकूट को ही श्री राम ने अपना निवास बनाया। इधर, जब श्रीराम गङ्गा के दक्षिण तट पर उतर गये, तब गुह दुःख से व्याकुल हो सुमन्त्र के साथ बड़ी देरतक बातचीत करता रहा। इसके बाद वह सुमन्त्र को साथ ले अपने घर को चला गया। श्रीरामचन्द्रजी का प्रयाग में भरद्वाज के आश्रम पर जाना, मुनि के द्वारा सत्कार
पाना तथा चित्रकूट पर्वत पर पहुँचना। ये सब वृत्तान्त शृङ्गवेर के निवासी गुप्तचरों ने देखे और लौटकर गुह को इन बातों से अवगत कराया। इन सब बातों को जानकर सुमन्त्र गुह से विदा ले अपने उत्तम घोड़ों को रथ में जोतकर अयोध्या की ओर ही लौट पड़े। उस समय उनके मन में बड़ा दुःख हो रहा था। वे मार्ग में सुगन्धित वनों, नदियों, सरोवरों, गाँवों और नगरों को देखते हुए बड़ी सावधानी के साथ शीघ्रतापूर्वक जा रहे थे।
शृङ्गवेरपुर से लौटने के दूसरे दिन सायंकाल में अयोध्या पहुँचकर उन्होंने देखा, सारी पुरी आनन्दशून्य हो गयी है। वहाँ कहीं एक शब्द भी सुनायी नहीं देता था। सारी पुरी ऐसी नीरव थी, मानो मनुष्यों से सूनी हो गयी हो। अयोध्या की ऐसी दशा देखकर सुमन्त्र के मन में बड़ा दुःख हुआ। सारथि सुमन्त्र ने शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा नगर द्वार पर पहुँचकर तुरंत ही पुरी के भीतर प्रवेश किया। सुमन्त्र को देखकर सैकड़ों और हजारों पुरवासी मनुष्य दौड़े आये और ‘श्रीराम कहाँ हैं?’ यह पूछते हुए उनके रथ के साथ-साथ दौड़ने लगे। बाजार के बीच से निकलते समय सारथि के कानों में स्त्रियों के रोने की आवाज सुनायी दी, जो महलों की खिड़कियों में बैठकर श्रीराम के लिये ही संतप्त हो विलाप कर रहीं थीं। राजमार्ग के बीच से जाते हुए सुमन्त्र ने कपड़े से अपना मुँह ढक लिया। वे रथ लेकर उसी भवन की ओर गये, जहाँ राजा दशरथ मौजूद थे।
धनियों की अट्टालिकाओं, सतमंजिले मकानों तथा राजभवनों में बैठी हुईं स्त्रियाँ सुमन्त्र को लौटा हुआ देख श्रीराम के दर्शन से वञ्चित होने के दुःख से दुर्बल हो हाहाकर कर उठीं। उनके कज्जल आदि से रहित बड़े-बड़े नेत्र आँसुओं के वेग में डूबे हुए थे। वे स्त्रियाँ अत्यन्त आर्त होकर अव्यक्तभाव से एक-दूसरी की ओर देख रही थीं। तदनन्तर राजमहलों में जहाँ-तहाँ से श्रीराम के शोक से संतप्त हुई राजा दशरथ की रानियों के मन्दस्वर में कहे गये वचन सुनायी पड़े। आठवीं ड्योढ़ी में प्रवेश करके उन्होंने देखा, राजा एक श्वेत भवन में बैठे और पुत्रशोक से मलिन, दीन एवं आतुर हो रहे हैं।
सुमन्त्र ने वहाँ बैठे हुए महाराज के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया और उन्हें श्रीरामचन्द्रजी की कही हुई बातें ज्यों-की-त्यों सुना दीं। राजा ने चुपचाप ही वह सुन लिया, सुनकर उनका हृदय द्रवित (व्याकुल) हो गया। फिर वे श्रीराम के शोक से अत्यन्त पीड़ित हो मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। महाराज के मूर्च्छित हो जाने पर सारा अन्तःपुर दुःख से व्यथित हो उठा। राजा के पृथ्वी पर गिरते ही सब लोग दोनों बाहें उठाकर जोर-जोर से चीत्कार करने लगे। उस समय कौसल्या ने सुमित्रा की सहायता से अपने गिरे हुए पति को उठाया। अन्तःपुर से उठे हुए उस आर्तनाद को देख सुनकर नगर के बूढ़े और जवान पुरुष रो पड़े। सारी स्त्रियाँ भी रोने लगीं। वह सारा नगर उस समय सब ओर से पुनः शोक से व्याकुल हो उठा।