Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम ने भरद्वाज मुनि से विदा लेकर यमुना नदी को पार किया और रात्रि के उसके समतल तट पर विश्राम किया। तदनन्तर रात्रि व्यतीत होने पर रघुकुल-शिरोमणि श्रीराम ने अपने जागने के बाद वहाँ सोये हुए लक्ष्मण को धीरे से जगाया और प्रस्थान के लिए कहा। फिर सब लोग उठे और यमुना नदी के शीतल जल में स्नान आदि करके ऋषि-मुनियों द्वारा सेवित चित्रकूट के उस मार्ग पर चल दिये। उस समय लक्ष्मण के साथ वहाँ से प्रस्थित हुए श्रीराम ने कमलनयनी सीता से कहा, इस वसन्त-ऋतु में सब ओर से खिले हुए इन पलाश-वृक्षों को तो देखो। ये अपने ही पुष्पों से पुष्पमालाधारी-से प्रतीत होते हैं और उन फूलों की अरुण प्रभा के कारण प्रज्वलित होते-से दिखायी देते हैं।
ये भिलावे और बेल के पेड़ अपने फूलों और फलों के भार से झुके हुए हैं। दूसरे मनुष्यों का यहाँ तक आना सम्भव न होने से ये उनके द्वारा उपयोग में नहीं लाये गये हैं; अतः निश्चय ही इन फलों से हम जीवन निर्वाह कर सकेंगे। जहाँ की भूमि समतल है और जो बहुत-से वृक्षों से भरा हुआ है, चित्रकूट के उस पवित्र कानन में हम लोग बड़े आनन्द से विचरेंगे। सीता के साथ दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण पैदल ही यात्रा करते हुए यथासमय रमणीय एवं मनोरम पर्वत चित्रकूट पर जा पहुँचे। वह पर्वत नाना प्रकार के पक्षियों से परिपूर्ण था। वहाँ फल-मूलों की बहतायत थी और स्वादिष्ट जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता था। उस रमणीय शैल के समीप जाकर श्रीराम ने कहा, यह पर्वत बड़ा मनोहर है नाना प्रकार के वृक्ष और लताएँ इसकी शोभा बढ़ाती हैं। यहाँ फलमूल भी बहुत हैं; यह रमणीय तो है ही मुझे जान पड़ता है कि यहाँ बड़े सुख से जीवन-निर्वाह हो सकता है।
ऐसा निश्चय करके सीता, श्रीराम और लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रवेश किया और सबने उनके चरणों में मस्तक झुकाया। धर्म को जानने वाले महर्षि उनके आगमन से बहुत प्रसन्न हुए और उनका सत्कार किया। तदनन्तर महाबाहु भगवान् श्रीराम ने महर्षि को अपना यथोचित परिचय दिया और लक्ष्मण से कहा, तुम जंगल से अच्छी-अच्छी मजबूत लकड़ियाँ ले आओ और रहने के लिये एक कुटी तैयार करो। यहीं निवास करने को मेरा जी चाहता है। श्रीराम की यह बात सुनकर शत्रुदमन लक्ष्मण अनेक प्रकार के वृक्षों की डालियाँ काट लाये और उनके द्वारा एक पर्णशाला तैयार की। वह कुटी बाहर-भीतर से लकड़ी की ही दीवार से सुस्थिर बनायी गयी थी और उसे ऊपरसे छा दिया गया था, जिससे वर्षा आदि का निवारण हो। वह देखने में बड़ी सुन्दर लगती थी।
इसके बाद समस्त देवताओं का पूजन करके पवित्र भाव से श्रीराम ने पर्णकुटी में प्रवेश किया। नदी में विधिपूर्वक स्नान करके न्यायतः गायत्री आदि मन्त्रों का जप करने के अनन्तर श्रीराम ने पञ्चसूना आदि दोषों की शान्ति के लिये उत्तम बलिकर्म सम्पन्न किया। वह मनोहर कुटी उपयुक्त स्थान पर बनी थी। उसे वृक्षों के पत्तों से छाया गया था और उसके भीतर प्रचण्ड वायु से बचने का पूरा प्रबन्ध था। सीता, लक्ष्मण और श्रीराम सबने एक साथ उसमें निवास के लिये प्रवेश किया। ठीक वैसे ही, जैसे देवतालोग सुधर्मा सभा में प्रवेश करते हैं। चित्रकूट पर्वत बड़ा ही रमणीय था। वहाँ उत्तमतीर्थों से सुशोभित माल्यवती (मन्दाकिनी) नदी बह रही थी, जिसका बहुत-से पशुपक्षी सेवन करते थे। उस पर्वत और नदी का सांनिध्य पाकर श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा हर्ष और आनन्द हुआ। वे नगर से दूर वन में आने के कारण होने वाले कष्ट को भूल गये।