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Bhagavad Gita Part 129: किस प्रकार की जीवात्मा को भगवान की माया परेशान नहीं करती है? पढ़े जवाब

jeevanjali Published by: निधि Updated Fri, 15 Mar 2024 05:38 PM IST
सार

Bhagavad Gita : भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, तीन प्रकार के प्राकृतिक गुण-सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ईश्वर से ही प्रकट होते है लेकिन ईश्वर का इन पर कोई प्रभाव नहीं होता है।

Bhagavad Gita : भगवद्गीता
Bhagavad Gita : भगवद्गीता- फोटो : jeevanjali

विस्तार

Bhagavad Gita : भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, तीन प्रकार के प्राकृतिक गुण-सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ईश्वर से ही प्रकट होते है लेकिन ईश्वर का इन पर कोई प्रभाव नहीं होता है।

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त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्, मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ( अध्याय 7 श्लोक 13 )

त्रिभिः-तीन; गुण-मयैः-भौतिक प्रकृति के गुणों से निर्मित; भावैः-अवस्था द्वारा; एभिः ये सब; सर्वम् सम्पूर्ण; इदम् यह; जगत्-ब्रह्माण्ड; मोहितम्-मोहित होना; न नहीं; अभिजानाति–नहीं जानना; माम्-मुझको; एभ्यः-इनसे; परम्-सर्वोच्च; अव्ययम्-अविनाशी।।

अर्थ - माया के तीन गुणों से मोहित इस संसार के लोग मेरे नित्य और अविनाशी स्वरूप को जान पाने में असमर्थ होते हैं।

व्याख्या - जब श्री कृष्ण इस बात को कहते है कि माया को मेरे द्वारा ही उत्पन्न किया गया है तो मन में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि फिर मनुष्य ईश्वर को परम सत्ता क्यों नहीं मानता है ? उसके अंदर "मैं" का या "कर्ता" का भाव क्यों आ जाता है? इस श्लोक में कृष्ण इसी प्रश्न का उत्तर दे रहे है। वो अर्जुन से कहते है कि, उनकी माया इतनी प्रबल है कि, मनुष्य इस माया से मोहित हो जाते है। वो अपने मन और बुद्धि को सिर्फ भौतिक सुख में ही लगाए रखते है। इन्द्रिय सुख को ही सबसे बड़ा सुख समझने के कारण उनके अंदर अहंकार का बोध हो जाता है। इसलिए वो मेरे उस स्वरुप को कभी नहीं जान सकते है जो अविनाशी है।

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दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते (अध्याय 7 श्लोक 14 )

दैवी-दिव्य; हि-वास्तव में; एषा–यह; गुण-मयी-प्रकृति के तीनों गुणों से निर्मित; मम–मेरी; दुरत्यया-पार कर पाना कठिन; माम्-मुझे; एव-निश्चय ही; ये-जो; प्रपद्यन्ते-शरणागत होना; मायाम्-एताम्-इस माया को; तरन्ति–पार कर जाते हैं; ते–वे।

अर्थ - प्रकति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

व्याख्या - पिछले श्लोक की बात को आगे बढ़ाते हुए श्री कृष्ण कहते है कि वैसे तो उनकी शक्ति से पार पाना बेहद कठिन है लेकिन जो उनके भक्त है उन्हें उस माया को पार करने में कोई कठिनाई नहीं आती है। जिसका मन अंतर्मुखी है और जिसकी बुद्धि शुद्ध है वो कभी भी कर्ता का भाव अपने भीतर नहीं लाता है। ऐसे में दिव्य बुद्धि और

प्रामाणिक गुरु के आश्रय से भक्ति का विकास हो जाता है। व्यक्ति जब भक्ति योग में प्रवृत हो जाता है तो उसके लिए माया का प्रभाव कुछ हद तक कम हो जाता है। इसलिए जो ईश्वर का भक्त है या उनकी शरण में है उसे माया प्रभावित नहीं कर सकती है।

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