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Bhagavad Gita Part 130: ये 4 प्रकार के प्राणी करते है ईश्वर का भजन ! क्या आप भी इनमे है ? समझिये

jeevanjali Published by: निधि Updated Fri, 15 Mar 2024 06:09 PM IST
सार

Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, प्रकति के तीन गुणों से युक्त दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो ईश्वर के शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

Bhagavad Gita: भगवद्गीता
Bhagavad Gita: भगवद्गीता- फोटो : jeevanjali

विस्तार

Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, प्रकति के तीन गुणों से युक्त दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो ईश्वर के शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

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न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः, माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ( अध्याय 7 श्लोक 15 )

न–नहीं; माम् मेरी; दुष्कृतिन:-बुरा करने वाले; मूढाः-अज्ञानी; प्रपद्यन्ते–शरण ग्रहण करते हैं; नर-अधमाः-अपनी निकृष्ट प्रवृति के अधीन आलसी लोग; मायया भगवान की प्राकृत शक्ति द्वारा; अपहृत- ज्ञानाः-भ्रमित बुद्धि वाले; आसुरम्-आसुरी; भावम्-प्रकृति वाले; आश्रिताः-शरणागति।

अर्थ - माया के द्वारा अपहृत ज्ञान वाले, आसुर भाव का आश्रय लेने वाले और मनुष्यों में महान् नीच तथा पाप-कर्म करने वाले मूढ़ मनुष्य मेरे शरण नहीं होते।

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व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण उन मनुष्यो का वर्णन करते है जो उनकी शरण में नहीं आते है। ऐसे लोग जो अज्ञानी है वो कभी भी ईश्वर के शरण में नहीं आ सकते है। जो आत्मा और शरीर के भेद को नहीं समझते है उनसे कैसे ये उम्मीद की जा सकती है कि वो भक्ति को समझ पाएंगे ! संसार में कुछ ऐसे भी लोग है जो सिर्फ भोग विलास को भी सुख का दर्जा देते है। ऐसे लोग आसुरी शक्ति से प्रभावित हो जाते है। ये लोग भी कभी ईश्वर की शरण में नहीं आ सकते है। कृष्ण आगे कहते है कि जो इन्द्रिय सुख को प्राप्त करने के लिए नीच कर्म करते है वो बुद्धि से रहित मनुष्य भी मेरी शरण में नहीं आ सकते है।

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन , आर्तो जिज्ञासरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ( अध्याय 7 श्लोक 16 )

चतुः विधाः-चार प्रकार के; भजन्ते-सेवा करते हैं; माम् मेरी; जनाः-व्यक्ति; सुकृतिनः-वे जो पुण्यात्मा हैं; अर्जुन-अर्जुन; आर्त:-पीड़ित; जिज्ञासुः-ज्ञान अर्जन करने के अभिलाषी; अर्थ-अर्थी-लाभ की इच्छा रखने वाले; ज्ञानी-वे जो ज्ञान में स्थित रहते हैं; च-भी; भरत-ऋषभ-भरतश्रेष्ठ, अर्जुन।।

हे भरतश्रेष्ठ ! चार प्रकार के पवित्र लोग मेरी भक्ति में लीन रहते हैं: आर्त अर्थात पीड़ित, ज्ञान की जिज्ञासा रखने वाले जिज्ञासु, संसार के स्वामित्व की अभिलाषा रखने वाले अर्थार्थी और जो परमज्ञान में स्थित ज्ञानी हैं।

व्याख्या - इस श्लोक में अब श्री कृष्ण उन लोगों के बारे में बताते है जो उनका भजन करते है। पहला पीड़ित यानी कि जिसे अपनों से कोई सुख नहीं प्राप्त होता है और उनसे पीड़ित होने के बाद एक समय उसे ये समझ आता है कि ईश्वर से किया गया प्रेम ही सफल हो सकता है। दूसरे वो जिन्हे ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा है ! वो इसी इच्छा से प्रेरित होकर किसी प्रामाणिक गुरु के पास जाते है जिससे उनकी बुद्धि शुद्ध हो जाती है और वो भक्ति को प्राप्त करते है। तीसरे वो लोग जो इस बात को समझते है कि ईश्वर सब कुछ दे सकता है। इसलिए वो संसार के सुख को

प्राप्त करने की कामना से ईश्वर को भजते है और चौथे उत्तम बुद्धि के मनुष्य यानी कि परम ज्ञानी होते है जिन्हे मेरे स्वरुप का ज्ञान होता है। वो अपने सभी कर्म मेरे ही शरणागत होकर करते है और संसार के सुख उनके लिए धूल के समान होते है।

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