Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, ईश्वर अपनी शक्तियों के माध्यम से सब मे विधमान रहते है।
Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, ईश्वर अपनी शक्तियों के माध्यम से सब मे विधमान रहते है।
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ, जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ( अध्याय 7 श्लोक 9 )
पुण्यः-पवित्र, गन्धः-सुगंध; पृथिव्याम्-पृथ्वी में; च और; तेज:-प्रकाश; च-भी; अस्मि-मैं हूँ; विभावसौ-अग्नि में; जीवनम्-जीवन शक्ति; सर्व-समस्त; भूतेषु-जीव; तपः-तपस्या; च-भी; अस्मि-हूँ; तपस्विषु-तपस्वियों में।
अर्थ - मैं पृथ्वी की शुद्ध सुगंध और अग्नि में दमक हूँ। मैं सभी प्राणियों में जीवन शक्ति हूँ और तपस्वियों का तप हूँ।
व्याख्या - पिछले श्लोक की बात को जारी रखते हुए श्री कृष्ण कहते है कि वो सबके आधार है। पृथ्वी का मूल गुण उसकी सुगंध है वही अग्नि का मूल उसकी ज्वाला में है। प्राणी का मूल उसकी शक्ति है और तपस्वी का मूल उसका तप है। श्री कृष्ण कहते है कि वो सबमें व्याप्त है। वो सभी के आधारभूत तत्व है।
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् , बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ( अध्याय 7 श्लोक 10 )
बीजम् बीज; माम–मुझको; सर्व-भूतानाम्-समस्त जीवों का; विद्धि-जानना; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुनः सनातनम्-नित्य,; बुद्धिः-बुद्धि; बुद्धि-मताम्-बुद्धिमानों की; अस्मि-हूँ; तेजः-तेज; तेजस्विनाम्-तेजस्वियों का; अहम्-मैं।
अर्थ - हे अर्जुन ! यह समझो कि मैं सभी प्राणियों का आदि बीज हूँ। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे है कि प्राणी और यह सृष्टि उनसे ही उत्पन्न हुई है। हमें जो भी दिखाई दे रहा है वो सब ईश्वर की शक्ति है जो कि माया से संचालित हो रही है। इस श्लोक से एक चीज और समझी जा सकती है और वो यह कि संसार में जो भी बुद्धि के कार्य हो रहे है वो ईश्वर की प्रेरणा से ही होते है।
इसलिए जो ज्ञान योगी होता है वो कभी भी अपने कर्म फल को ग्रहण नहीं करता है। वो ईश्वर को ही उसके पीछे की शक्ति मानता है वही तप करने के लिए भी ईश्वर का सहयोग ज़रूरी हो जाता है। बड़े 2 तपस्वी कभी भी खुद श्रेय नहीं लेते बल्कि ईश्वर को ही उसका जिम्मेदार मानते है।
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