Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री भगवान् की सिर्फ अपरा शक्ति ही नहीं होती बल्कि जीवात्मा के रूप में उनकी परा शक्ति भी काम करती है।
Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री भगवान् की सिर्फ अपरा शक्ति ही नहीं होती बल्कि जीवात्मा के रूप में उनकी परा शक्ति भी काम करती है।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय, मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ( अध्याय 7 श्लोक 7 )
मत्तः-मुझसे; पर-तरम्-श्रेष्ठ; न-नहीं; अन्यत्-किञ्चित्-अन्य कुछ भी; अस्ति–है; ध नञ्जय-धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन,; मयि–मुझमें; सर्वम्-सब कुछ; इदम्-जो हम देखते हैं; प्रोतम्-गुंथा हुआ; सूत्रे-धागे में; मणि-गणा:-मोतियों के मनके; इव-समान।
अर्थ - हे अर्जुन ! मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। सब कुछ मुझ पर उसी प्रकार से आश्रित है, जिस प्रकार से धागे में गुंथे मोती।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है कि वो परा और अपरा शक्ति के मालिक होने के कारण श्रेष्ठ है। इस श्लोक में धागे में गुंथे मोतियों की उपमा का प्रयोग किया गया है। यानी की श्री भगवान् ही सबका पालन पोषण कर रहे है और सबकी डोर उन्ही के हाथ में है। एक जीव आत्मा अपने हिसाब से सोच सकती है कार्य कर सकती है लेकिन वो उस ईश्वर से दूर नहीं जा सकती है और ना ही वो उससे मुक्त हो सकती है।
इसलिए कृष्ण यह भी पहले समझा चुके है कि भले ही कोई नास्तिक ही क्यों नहीं हो तो भी ईश्वर की माया और यह प्रकृति उसमें भेद नहीं करती है। जाहिर सी बात है इस संसार में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वो सिर्फ और सिर्फ ईश्वर की इच्छा से ही प्रकट है।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः, प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ( अध्याय 7 श्लोक 8 )
रसः-स्वाद; अहम्–मैं; अप्सु-जल में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; प्रभा–प्रकाश; अस्मि-हूँ; शशि-सूर्ययो:-चन्द्रमा तथा सूर्य का; प्रणवः-पवित्र मंत्र ओम; सर्व-सारे; वेदेषु–वेद; शब्दः-ध्वनि; खे-व्योम में; पौरूषम्-सामर्थ्य; नृषु-मनुष्यों में।
अर्थ - हे कुन्ती पुत्र ! मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, मैं वैदिक मंत्रों में पवित्र अक्षर ओम हूँ, मैं ही अंतरिक्ष की ध्वनि और मनुष्यों में सामर्थ्य हूँ।
व्याख्या - जब कृष्ण अर्जुन को यह बात समझा देते है कि इस संसार में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वही उसके आधार है तो उसके बाद वो अर्जुन को कुछ और बातों से अवगत कराते है। इस श्लोक में श्री कृष्ण समझा रहे है कि वो अपनी शक्तियों के माध्यम से सबमे विधमान रहते है। यानी कि सबमें व्याप्त है। जैसे की जल का स्वाद हो या सूर्य चंद्र का प्रकाश हो वो उनकी ही शक्ति है। मंत्रों में पवित्र अक्षर ओम हो या अंतरिक्ष की ध्वनि हो। ईश्वर हर जगह रहते है। उन्ही की शक्ति और प्रेरणा से संसार में सारे कार्य हो रहे है।