Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री कृष्ण ने योगी को सबसे उत्तम पुरुष कहा है। आगे कृष्ण बोले,
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना , श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ( अध्याय 6 श्लोक 47 )
योगिनाम्-सभी योगियों में से; अपि-फिर भी; सर्वेषाम् समस्त प्रकार के; मत्-गतेन–मुझ में तल्लीन; अन्त:-आंतरिक; आत्मना-मन के साथ; श्रद्धावान्–पूर्ण विश्वास के साथ; भजतेभक्ति में लीन; य:-जो; माम् मेरे प्रति; स:-वह; मे-मेरे द्वारा; युक्त-तमः-परम योगी; मतः-माना जाता है।
अर्थ - सभी योगियों में से जिनका मन सदैव मुझ में तल्लीन रहता है और जो अगाध श्रद्धा से मेरी भक्ति में लीन रहते हैं उन्हें मैं सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण योगियों में भी कौन उत्तम है इसका वर्णन कर रहे हैं। यहां मन और श्रद्धा के बारे में विशेष जोर दिया गया है। एक मनुष्य के लिए दोनों को ही साधना बड़ा कठिन काम है। ना तो व्यक्ति अपने मन को काबू में ही कर पाता है और न ही उसकी श्रद्धा अटूट हो पाती है। जैसे ही उसके जीवन में किसी दुःख का प्रवेश हुआ या फिर कर्म का फल उसके मन के हिसाब से उसे प्राप्त नहीं हुआ तो उसकी श्रद्धा भटक जाती है।
जो उत्तम योगी है उनमे इन्ही 2 गुणों की प्रधानता होती है। उनका मन सदैव श्री भगवान् में ही रहता है यानी कि उन्होंने अपने मन को काबू में कर लिया है और उनकी भक्ति अटूट होती है यानी कि उन्होंने अपने कर्म को और उसके फल को पूर्ण रूपेण श्री भगवान् के चरणों में सौंप दिया है। इसलिए भगवान् खुद इस बात को कहते है कि अगर किसी भक्त का प्रेम दिव्यता को प्राप्त करता है तो वो खुद उसके अधीन हो जाते है।
पुराणों में न जाने कितनी कथाएं ऐसी है जहां श्री भगवान् ने हर नियम के पार जाकर अपने भक्त की रक्षा की है। इसलिए एक मनुष्य को यह समझना चाहिए कि सिर्फ कर्म कांड करने से कुछ नहीं होता है। अपने मन और अपनी श्रद्धा को भी प्रबल करना होगा तभी जाकर आप अखंड भक्ति को प्राप्त कर पाएंगे।
( अध्याय 6, ध्यान योग समूर्ण )