Bhagavad Gita ; भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, अपूर्ण योगी जब अगला जन्म लेता है तो उसका कैसा व्यवहार होता है।
Bhagavad Gita ; भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, अपूर्ण योगी जब अगला जन्म लेता है तो उसका कैसा व्यवहार होता है।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः, अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ( अध्याय 6 श्लोक 45 )
प्रयत्नात्-कठिन प्रयास के साथ; यतमानः-प्रयत्न करते हुए; तु-और; योगी-ऐसा योगी; संशुद्ध-शुद्ध होकर; किल्बिष:-सांसारिक कामना से; अनेक-अनेकानेक; जन्म-जन्मों के बाद; संसिद्धः-पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर; ततः-तब; याति प्राप्त करता है; पराम्-सर्वोच्च; गतिम्-लक्ष्य।
अर्थ - पिछले कई जन्मों में संचित पुण्यकर्मों के साथ जब ये योगी आध्यात्मिक मार्ग में आगे उन्नति करने हेतु निष्ठापूर्वक प्रयत्न में लीन रहते हैं तब वे सांसारिक कामनाओं से शुद्ध हो जाते हैं और इसी जीवन में पूर्णताः प्राप्त कर लेते हैं।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण समझा रहे है कि व्यक्ति अपने जीवन में जो भी पुण्य अर्जित करता है वो उसके साथ हमेशा चलते है। इसी प्रकार इस जन्म में जो साधना अधूरी रह जाती है वो अगले जन्म में भी पूरी हो सकती है।
इसलिए संचित पुण्य के साथ व्यक्ति को अगला जन्म जब मिलता है तो वो आध्यात्म के मार्ग में निष्ठा के साथ प्रयत्न करता है। उनकी बुद्धि और मन दोनों शुद्ध रहते है इसलिए संसार की कामना उन्हें प्रभावित नहीं कर पाती है और इस प्रकार ज्ञान के मार्ग पर चलते हुए वे योगी इस जन्म में भले ही नहीं सही अगले जन्म में पूर्णता को प्राप्त कर लेते है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः, कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन (अध्याय 6 श्लोक 46 )
तपस्विभ्यः-तपस्वियों की अपेक्षा; अधिक:-श्रेष्ठ; योगी-योगी; ज्ञानिभ्यः-ज्ञानियों से; अपि-भी; मत:-माना जाता है; अधिक-श्रेष्ठ; कर्मिभ्यः-कर्मकाण्डों से श्रेष्ठ; च-भी; अधिक:-श्रेष्ठ, योगी-योगी; तस्मात्-अतः; योगी-योगी; भव-हो जाना; अर्जुन-अर्जुन।
अर्थ -एक योगी तपस्वी से, ज्ञानी से और सकाम कर्मी से भी श्रेष्ठ होता है। अतः हे अर्जुन ! तुम सभी प्रकार से योगी बनो।
व्याख्या - इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को योगी बनने की प्रेरणा दे रहे है। ऐसा वो इसलिए कह रहे है क्यूंकि योगी एक तपस्वी से, ज्ञानी से और सकाम कर्मी से भी श्रेष्ठ होता है। दरअसल योगी शरीर की अवस्था से मुक्त होकर ईश्वर को प्राप्त करने की कोशिश करते है इसलिए वो पूरी तरह अपने आप को श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित कर देते है। यही कारण है कि श्री कृष्ण ने योग की अवस्था को श्रेष्ठ कहा है।