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Valmiki Ramayana Part 125 : श्री राम ने ली अयोध्या के मंत्री सुमन्त्र से विदा !

jeevanjali Published by: कोमल Updated Mon, 11 Mar 2024 06:52 PM IST
सार

Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम की भेंट निषादराज गुह से होती है और प्रभु श्री राम उसे आलिंगन देकर सम्मान करते है और रात वही रुक जाते है। जब रात बीती और प्रभात हुआ

रामायण
रामायण- फोटो : jeevanjali

विस्तार

Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम की भेंट निषादराज गुह से होती है और प्रभु श्री राम उसे आलिंगन देकर सम्मान करते है और रात वही रुक जाते है। जब रात बीती और प्रभात हुआ, उस समय विशाल वक्ष वाले महायशस्वी श्रीराम ने शुभलक्षण सम्पन्न सुमित्रा कुमार लक्ष्मण से कहा, भगवती रात्रि व्यतीत हो गयी अब सूर्योदय का समय आ पहुँचा है। वह अत्यन्त कालेरंग का पक्षी कोकिल कुहू कुहू बोल रहा है। अब हमें तीव्र गति से बहने वाली समुद्रगामिनी गङ्गाजी के पार उतरना चाहिये। मित्रों को आनन्दित करने वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने श्रीरामचन्द्रजी के कथन का अभिप्राय समझकर गुह और सुमन्त्र को बुलाकर पार उतरने की व्यवस्था करने के लिये कहा और स्वयं वे भाई के सामने आकर खड़े हो गये। 

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श्रीरामचन्द्रजी का वचन सुनकर उनका आदेश शिरोधार्य करके निषादराज ने तुरंत अपने सचिवों को बुलाया और बोले, तुम घाट पर शीघ्र ही एक ऐसी नाव ले आओ, जो मजबूत होने के साथ ही सुगमतापूर्वक खेने योग्य हो, उसमें डाँड़ लगा हुआ हो, कर्णधार बैठा हो तथा वह नाव देखने में सुन्दर हो। निषादराज गुह का वह आदेश सुनकर उसका महान् मन्त्री गया और एक सुन्दर नाव घाट पर पहुँचाकर उसने गुह को इसकी सूचना दी। तब गुह ने हाथ जोड़कर श्रीरामचन्द्रजी से कहा कि आपके समक्ष नौका आ गई है। श्रीराम और लक्ष्मण ने कवच धारण करके तरकस एवं तलवार बाँधी तथा धनुष लेकर वे दोनों भाई जिस मार्ग से सब लोग घाटपर जाया करते थे, उसी से सीता के साथ गङ्गाजी के तट पर गये। 



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उस समय धर्म के ज्ञाता भगवान् श्रीराम के पास जाकर सारथि सुमन्त्र ने विनीतभाव से हाथ जोड़कर पूछा कि अब मैं आपकी क्या सेवा करुँ? तब दशरथनन्दन श्रीराम ने सुमन्त्र को वापिस अयोध्या जाने और अपने पिता का ध्यान रखने के लिए कहा। अपने को घर लौटने की आज्ञा प्राप्त हुई देख सारथि सुमन्त्र शोक से व्याकुल हो उठे। तदनन्तर वानप्रस्थमार्ग का आश्रय लेकर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने वानप्रस्थोचित व्रत को ग्रहण किया। तत्पश्चात् वे अपने सहायक गुह से बोले, तुम सेना, खजाना, किला और राज्य के विषय में सदा सावधान रहना। गुह को इस प्रकार आज्ञा देकर उससे विदा ले इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्रजी पत्नी और लक्ष्मण के साथ तुरंत ही वहाँ से चल दिये। उस समय उनके चित्त में तनिक भी व्यग्रता नहीं थी। 

नदी के तट पर लगी हुई नाव को देखकर इक्ष्वाकुनन्दन श्रीराम ने शीघ्रगामी गङ्गानदी के पार जाने की इच्छा से लक्ष्मण से कहा, यह सामने नाव खड़ी है। तुम मनस्विनी सीता को पकड़कर धीरे से उस पर बिठा दो, फिर स्वयं भी नाव पर बैठ जाओ। भाई का यह आदेश सुनकर मन को वश में रखने वाले लक्ष्मण ने पूर्णतः उसके अनुकूल चलते हुए पहले मिथिलेशकुमारी श्रीसीता को नावपर बिठाया, फिर स्वयं भी उसपर आरूढ़ हुए। सबके अन्त में लक्ष्मण के बड़े भाई तेजस्वी श्रीराम स्वयं नौका पर बैठे। तदनन्तर निषादराज गुह ने अपने भाई-बन्धुओं को नौका खेने का आदेश दिया।

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