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Parshuram Katha: भगवान परशुराम ने काट दिया था माता का गला,जानें क्षत्रियों के संहार की पूरी कथा

जीवांजलि डेस्क Published by: सुप्रिया शर्मा Updated Wed, 24 May 2023 06:38 PM IST
सार

कर्म और धर्म से विवेकवान और धैर्यशील होने वाले ब्राह्मणों में एक शूरवीर ऐसा हुआ जिसे भगवान परशुराम के नाम से जाना गया। यह भगवान विष्णु के छठे अवतार थे जिनके तप और बल से पूरी धरती कांप जाती थी।

भगवान परशुराम कथा
भगवान परशुराम कथा- फोटो : jeevanjali

विस्तार

सृष्टि में जब जब अधर्म बढ़कर असत्य का बोलबाला हुआ है तब-तब भगवान विष्णु ने अवतार धारण कर फिर से धर्म की स्थापना की है। भगवान का परशुराम अवतार काफी गुस्सैल और कट्टर माना गया है जिसमें वह भगवान के सामने भी लड़ने के लिए निसंकोच खड़े हो गये। भगवान गणेश का एक दांत भी उन्ही के प्रहार से टूटा था।

परशुराम की जन्म कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार गाधि नाम के एक राजा थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी जिसका विवाह भृगुनन्दन ऋचीक के साथ हुआ था। सत्यवती के विवाह के बाद वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। इस पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र दिए। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपनी पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने किसी तरह अपनी बेटी वाले चरु पात्र को ले लिया।

योगशक्ति से भृगु को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने अपनी पुत्रवधू को कहा कि अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने यह बात मान ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ और उसकी माता के गर्भ से विश्वामित्र जी का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। इनका विवाह रेणुका से हुआ जिनके गर्भ से परशुराम का जन्म हुआ। परशुराम को मिला कर जमदग्नि और रेणुका के अन्य चार पुत्र रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस भी थे।

भगवान का अवतार होने के कारण परशुराम जी परम तेजस्वी और शक्तिशाली थी। इन्हें शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक और पिता जमदग्नि ने दी। इन्हें शस्त्र चलाने की शिक्षा स्वयं भगवान शिव और विश्वामित्र जी ने दी थी। परशुराम जी योग, वेद और नीति में पारंगत थे। भगवान शिव से इन्हें परशु मिला था जिससे इनका नाम परशुराम हुआ।
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परशुराम ने काटा माता का गला

परशुराम जी के लिए धर्म ही सबसे ऊपर रहा। एक बार इन्होंने पिता की आज्ञा पाकर अपनी माता का सिर काट दिया था। एक बार माता रेणुका गंगा से जल ला रही थी तो उन्होंने गन्धर्वराज चित्रकेतु को अप्सराओं के साथ जलविहार करते देखा। यह देखकर उनके मन में विकार उत्पन्न हो गया और वे खुद को रोक नहीं पाई। महर्षि जमदग्नि को इस बात का पता चल गया। महर्षि ने अपने सभी पुत्रों से माता का वध करने लिए कहा तो उन्होंने प्रेम में ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने परशुराम को यह आदेश दिया तो उन्होंने बिना एक पल विचार कर पिता की आज्ञा से माता समेत चारों भाइयों का गला काट दिया। पिता इससे प्रसन्न हो गये और वरदान मांगने के लिए कहा। परशुराम ने वरदान में माता और भाइयों का जीवन मांगा और कहा कि उन्हें इस घटना की याद न रहे।


परशुराम और क्षत्रियों का संहार 

संसार में धारणा है कि भगवान परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों से धरती को मुक्त किया लेकिन यह अधूरी है। उन्होंने केवल हैहयवंशी क्षत्रियों से युद्ध किया था। परशुराम जी के समय में हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का बड़ा अत्याचार था। हैहयवंशियों का राजा सहस्रबाहु अर्जुन बड़ा ही दुष्ट था जो आश्रमों के ऋषियों को सताया करता था। एक समय परशुराम जी के न होने पर सहस्रबाहु के पुत्रों ने जमदग्नि के आश्रम पर कामधेनु गाय को लेने का प्रयास किया और ऋषि जमदग्नि के रोकने पर उनकी हत्या कर दी। आश्रम पर लौटनेपर परशुराम ने अपनी माता को विलाप करते हुए देखा। उनकी माता ने 21 बार छाती पीटी थी तो परशुराम जी ने 21 बार ही क्षत्रियों के संहार का संकल्प लिया। संकल्प को पूरा करते हुए परशुराम जी ने हैहयवंशियों का नाश किया।परशुराम जी ने क्षत्रियों के संहार के बाद अश्वमेध यज्ञ किया और उसमें सारी पृथ्वी कश्यपजी को दान में दे दी। कश्यपजी ने सोचा की धरती से हमेशा के लिए क्षत्रिय न चले जाए इसलिए उन्होंने परशुराम को दक्षिण समुद्र की ओर  यात्रा करने के लिए कहा।
हर युग में भगवान परशुराम

चारों युग में परशुराम जी जिक्र देखा गया है। सतयुग में जब एक बार परशुराम को गणेशजी ने परशुराम से रोक लिया तो वह क्रोधित हो गये। इन दोनों की लड़ाई में गणेश की एक दांत टूट गया। त्रेतायुग में जनक, दशरथ आदि राजाओं ने उन्हें बहुत सम्मान दिया। सीता स्वयंवर में उनकी भेट प्रभु श्रीराम से हुई थी।

द्वापरयुग में महाभारत में उन्होंने कौरव सभा में कृष्ण का पक्ष लिया। परशुराम जी जितने बड़े योद्धा थे वैसे ही इनके शिष्य भी हुए। भगवान परशुराम के शिष्यों में सबसे बड़े योद्धा भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य और कर्ण हुए। ये इतने बड़े प्रतापी थे की देवताओं से भी युद्ध में लोहा ले लेते। परशुराम ने असत्य कहने के लिए कर्ण को श्राप भी दिया था।

परशुराम जी चिरंजीवी हैं। कठोर तपस्या से उन्हें भगवान विष्णु से कल्प के अंत तक भूलोक पर रहने का वर मिला हुआ है। कल्कि पुराण के मुताबिक, भगवान विष्णु के चौबीसवें तथा अंतिम अवतार कल्कि के गुरु परशुराम जी होंगे। ये कल्कि को युद्ध की शिक्षा देंगे। भगवान कल्कि को परशुराम ही भगवान शिव की तपस्या कर उनसे दिव्यास्त्र लेने की आज्ञा देंगे।
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